Monday, May 10, 2021

राणा कुम्भा

आज हम बात करेंगे राजस्थान के सर्वश्रेष्ठ शासकों में से एक, मेवाड़ की शान राणा कुंभा की जिन्होंने मेवाड़ की शान में चार चांद लगा दिए...

राणा कुम्भा  महाराणा मोकल के पुत्र थे और उन्होनें अपने पिता की हत्या के बाद महज 16 साल की उम्र में ही मेवाड़ की गद्दी संभाली थी..... राणा कुम्भा को महाराणा कुम्भा या महाराणा कुम्भकर्ण के नाम से जाना जाता है...लेकिन इतिहास में  ये 'राणा कुंभा' के नाम से अधिक प्रसिद्ध हैं ....राणा कुम्भा की तीन संताने थी  जिनमें दो पुत्र और एक पुत्री थी  उनके पुत्रों का नाम उदय सिंह  प्रथम , राणा रायमल था और  पुत्री का नाम रमाबाई (वागीश्वरी ) था...
महाराणा कुम्भा का शासन 1433 से 1468 तक रहा...लेकिन  राणा कुम्भा ने गद्दी पर बैठते ही सबसे पहले अपने पिता के हत्यारों से बदला लेने का निश्चय किया था... उनके पिता राणा मोकल की हत्या चाचा, मेरा और महपा परमार ने की थी...
हत्या के बाद वो तीनों दुर्गम पहाड़ों में जा छिपे... इनको दण्डित करने के लिए रणमल राठौड़ को भेजा गया था...रणमल ने उन विद्रोहियों पर आक्रमण किया...रणमल ने चाचा और मेरा को तो मार दिया, लेकिन महपा चकमा देकर भाग गया था....  महपा ने भागकर  मालवा के सुलतान के यहाँ शरण ली थी... राणा कुम्भा ने अपने विद्रोहियों को सुपुर्द करने के लिए सुल्तान के पास सन्देश भेजा था....तो वहीं सुल्तान ने जवाब दिया था कि मैं अपने शरणागत को किसी भी तरह नहीं छोड़ सकता... अतः दोनों में युद्ध की सम्भावना हो गई........ 

सन् 1437 ई. में सारंगपुर के पास राणा कुम्भा ने मालवा सुल्तान महमूद खिलजी पर आक्रमण किया था....लेकिन सुल्तान हारकर भाग गया और जा कर माण्डू के किले में शरण ली....कुम्भा ने फिर माण्डू पर आक्रमण किया और सुल्तान को पराजित किया और उसे बन्दी बनाकर चित्तौड़ ले आए...और  कुछ समय कैद में रख कर क्षमा कर दिया... इस विजय के उपलक्ष में राणा कुम्भा ने चित्तौड़ दुर्ग में कीर्ति स्तम्भ बनवाया था.... महाराणा कुम्भा ने अपने पिता के हत्यारों से बदला लेने के लिए अपने पिता के मामा रणमल राठौड़ की मदद ली और जल्द ही उन्होने अपने पिता के हत्यारों से बदला लिया..

तो वही राठौड़ कहीं मेवाड़ को हस्तगत करने का प्रयत्न न करें, इस प्रबल संदेह से शंकित होकर उन्होंने रणमल को मरवा दिया और कुछ समय के लिए मंडोर का राज्य भी उन्ही के हाथ में आ गया..
उनके शत्रुओं ने अपनी पराजयों का बदला लेने का बार-बार प्रयत्न किया, लेकिन  उन्हें सफलता नहीं मिली..यहां तक की मालवा के सुलतान ने तो 5 बार मेवाड़ पर आक्रमण किया...
नागौर के स्वामी शम्स खाँ ने गुजरात की सहायता से स्वतंत्र होने का विफल प्रयत्न किया। यही दशा आबू के देवड़ों की भी हुई। मालवा और गुजरात के सुलतानों ने मिलकर महाराणा पर आक्रमण किया किंतु मुसलमानी सेनाएँ फिर परास्त हुई...

नागौर का युद्ध मेवाड़ के राजपूतों तथा नागौर की सल्तनत के बीच हुआ था....इसका आरम्भ मुजाहिद खान और शम्स खान नामक दो भाइयों के बीच विवाद से आरम्भ हुआ जिसमें शम्स खान पराजित हुआ। इसके बाद शम्स खान ने राणा कुम्भा की सहायता से नागौर को पुनः जीत लिया...लेकिन शम्स अपने युद्ध के पहले दिए वचन से मुकर गया जिससे एक और युद्ध हुआ जिसमें राणा कुम्भा ने शम्स खान को पराजित कर नागौर पर अधिकार कर लिया..

महाराणा ने गद्दी पर  बैठने के करीब  7  वर्षों के भीतर ही अन्य अनेक विजय भी प्राप्त किए..  उन्होनें  सारंगपुर, नागौर, नराणा, अजमेर, मंडोर, मोडालगढ़, बूंदी, खाटू, चाटूस आदि के सुदृढ़ किलों को जीत लिया और दिल्ली के सुलतान सैयद मुहम्मद शाह और गुजरात के सुलतान अहमदशाह को भी परास्त किया....इस प्रकार राजस्थान का अधिकांश और गुजरात, मालवा और दिल्ली के कुछ भाग जीतकर उसने मेवाड़ को महाराज्य बना दिया।

लेकिन राणा कुंभा की महत्तव जीत से अधिक उनके सांस्कृतिक कार्यों के कारण है। उन्होंने अनेक दुर्ग, मंदिर और तालाब बनवाए तथा चित्तौड़ को अनेक प्रकार से सुसंस्कृत किया। कुंभलगढ़ का प्रसिद्ध किला उनकी कृति है। बंसतपुर को उन्होंने पुनः बसाया और श्री एकलिंग के मंदिर का जीर्णोंद्वार किया। चित्तौड़ का कीर्तिस्तम्भ तो संसार की अद्वितीय कृतियों में एक है। इसके एक-एक पत्थर पर उनके शिल्पानुराग, वैदुष्य और व्यक्तित्व की छाप है। अपनी पुत्री रमाबाई ( वागीश्वरी ) के विवाह स्थल के लिए चित्तौड़ दुर्ग में श्रृंगार चंवरी का निर्माण कराया तथा चित्तौड़ दुर्ग में ही विष्णु को समर्पित कुम्भश्याम जी मन्दिर का निर्माण कराया ..

मेवाड़ के राणा कुम्भा का स्थापत्य युग स्वर्णकाल के नाम से भी जाना जाता है, क्योंकि कुम्भा ने अपने शासनकाल में अनेक दुर्गों, मन्दिरों एंव विशाल राजप्रसादों का निर्माण कराया, कुम्भा ने अपनी विजयों के लिए भी अनेक ऐतिहासिक इमारतों का निर्माण कराया था...वीर-विनोद के लेखक श्यामलदस के अनुसार कुम्भा ने कुल 32 दुर्गों का निर्माण कराया था जिसमें कुभलगढ़, अलचगढ़, मचान दुर्ग, भौसठ दुर्ग, बसन्तगढ़ आदि मुख्य माने जाते हैं 

राणा कुम्भा बड़े विद्यानुरागी थे। संगीत के अनेक ग्रंथों की उन्होंने रचना की और चंडीशतक एवं गीतगोविन्द आदि ग्रंथों की व्याख्या की। वे नाट्यशास्त्र के ज्ञाता और वीणावादन में भी कुशल थे। कीर्तिस्तंभों की रचना पर उन्होंने स्वयं एक ग्रंथ लिखा और मंडन आदि सूत्रधारों से शिल्पशास्त्र के ग्रंथ लिखवाए....जब राणा कुंभा भगवान शिव की प्रार्थना कर रहे थे तब उदय सिंह प्रथम ने उनकी हत्या कर दी और खुद को शासक घोषित कर दिया था.... इस महान राणा कुंभा की मृत्यु  1468 ई.  में अपने ही पुत्र उदयसिंह प्रथम  के हाथों ही हुई थी...

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